मीलों दूर फैला कोरा सा आसमां
गहन कोहरे में लिपटा, धूसर मटमैला
न तारों की पंक्तियाँ, न मचलती बदलियाँ
बस ठहरा सा चांद, ठिठका सा धुआं
न पत्तों की सरसराहट न हवाओं की आहट
न गुलाब पर नूर न चकवों की बगावत
मुरझाई सी कलियां, उलझी सी गलियां
जैसे प्रकृति मौन साधे बैठी है आज
कदम थम चुके, मंज़िलें खो गईं
पर शायद फिर भी बाक़ी है कोई याद
ज़मीं डोल रही है धीमे-धीमे
अंतर्द्वंद्व में अपना अस्तित्व खो रही है
ज्वालामुखी के ज्वलंत होने से पहले
सब शांत हो जाता है
लावा उबलने से पहले
धधकता कंपकंपाता है
स्थिति वही है
हल्की दरारें गहरी होती जा रहीं
कभी न भरने वाली खाई का स्वरूप उभरने लगा है
मंज़र बदलने लगा है
लाशें गिरेंगी पिंजरों से धरती पटेगी
न होगा कोई वारिस न कोई ज़िम्मेवार
जाने ये सियासतें कितनों को ले डूबेंगी
पर न समझे मुल्क, न समझे इंसानियत
खून के प्यासे, पार करते हद-ए-हैवानियत
तेरी इस जन्नत का ये हश्र भी होगा
ऐ मेरे खुदा क्या तूने कभी सोचा था!
Anupama
think of them as Sand paper.
They Scratch & hurt you,
but in the end you are polished and they are finished. ''
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