वर्तमान समय में दहेज व्यवस्था एक ऐसी प्रथा का रूप ग्रहण कर चुकी है जिसके अंतर्गत युवती के माता-पिता और परिवारवालों का सम्मान दहेज में दिए गए धन-दौलत पर ही निर्भर करता है. वर-पक्ष भी सरेआम अपने बेटे का सौदा करता है. प्राचीन परंपराओं के नाम पर युवती के परिवार वालों पर दबाव डाल उन्हें प्रताड़ित किया जाता है. इस व्यवस्था ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है. संपन्न परिवारों को शायद दहेज देने या लेने में कोई बुराई नजर नहीं आती. क्योंकि उन्हें यह मात्र एक निवेश लगता है. उनका मानना है कि धन और उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह उनके मान-सम्मान को बढ़ाने के साथ-साथ बेटी को भी खुशहाल जीवन देगा. लेकिन निर्धन अभिभावकों के लिए बेटी का विवाह करना बहुत भारी पड़ जाता है. वह जानते हैं कि अगर दहेज का प्रबंध नहीं किया गया तो विवाह के पश्चात बेटी का ससुराल में जीना तक दूभर बन जाएगा.
दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए अब तक कितने ही नियमों और कानूनों को लागू किया गया हैं, जिनमें से कोई भी कारगर सिद्ध नहीं हो पाया. 1961 में सबसे पहले दहेज निरोधक कानून अस्तित्व में आया जिसके अनुसार दहेज देना और लेना दोनों ही गैरकानूनी घोषित किए गए. लेकिन व्यावहारिक रूप से इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया. आज भी बिना किसी हिचक के वर-पक्ष दहेज की मांग करता है और ना मिल पाने पर नववधू को उनके कोप का शिकार होना पड़ता है.
1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था. इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए. इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए. नियम बना तो दिए जाते हैं लेकिन ऐसे नियमों को शायद ही कभी लागू किया जाता है. 1997 की एक रिपोर्ट में अनुमानित तौर पर यह कहा गया कि प्रत्येक वर्ष 5,000 महिलाएं दहेज हत्या का शिकार होती हैं. उन्हें जिंदा जला दिया जाता है जिन्हें दुल्हन की आहुति के नाम से जाना जाता है.
दहेज एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसका परित्याग करना बेहद जरूरी है. उल्लेखनीय है कि शिक्षित और संपन्न परिवार भी दहेज लेना अपनी परंपरा का एक हिस्सा मानते हैं तो ऐसे में अल्पशिक्षित या अशिक्षित लोगों की बात करना बेमानी है. युवा पीढ़ी, जिसे समाज का भविष्य समझा जाता है, उन्हें इस प्रथा को समाप्त करने के लिए आगे आना होगा ताकि भविष्य में प्रत्येक स्त्री को सम्मान के साथ जीने का अवसर मिले और कोई भी वधू दहेज हत्या की शिकार ना होने पाए.
जय हिंद
धन्यबाद
दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए अब तक कितने ही नियमों और कानूनों को लागू किया गया हैं, जिनमें से कोई भी कारगर सिद्ध नहीं हो पाया. 1961 में सबसे पहले दहेज निरोधक कानून अस्तित्व में आया जिसके अनुसार दहेज देना और लेना दोनों ही गैरकानूनी घोषित किए गए. लेकिन व्यावहारिक रूप से इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया. आज भी बिना किसी हिचक के वर-पक्ष दहेज की मांग करता है और ना मिल पाने पर नववधू को उनके कोप का शिकार होना पड़ता है.
1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था. इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए. इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए. नियम बना तो दिए जाते हैं लेकिन ऐसे नियमों को शायद ही कभी लागू किया जाता है. 1997 की एक रिपोर्ट में अनुमानित तौर पर यह कहा गया कि प्रत्येक वर्ष 5,000 महिलाएं दहेज हत्या का शिकार होती हैं. उन्हें जिंदा जला दिया जाता है जिन्हें दुल्हन की आहुति के नाम से जाना जाता है.
दहेज एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसका परित्याग करना बेहद जरूरी है. उल्लेखनीय है कि शिक्षित और संपन्न परिवार भी दहेज लेना अपनी परंपरा का एक हिस्सा मानते हैं तो ऐसे में अल्पशिक्षित या अशिक्षित लोगों की बात करना बेमानी है. युवा पीढ़ी, जिसे समाज का भविष्य समझा जाता है, उन्हें इस प्रथा को समाप्त करने के लिए आगे आना होगा ताकि भविष्य में प्रत्येक स्त्री को सम्मान के साथ जीने का अवसर मिले और कोई भी वधू दहेज हत्या की शिकार ना होने पाए.
जय हिंद
धन्यबाद
परोपकाराय फलन्ति वृक्षा: परोपकाराय वहन्ति नद्यः।
परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकाराय इदं शरीरम्।।
( hari krishnamurthy K. HARIHARAN)"
'' When people hurt you Over and Over
think of them as Sand paper.
They Scratch & hurt you,
but in the end you are polished and they are finished. ''
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They Scratch & hurt you,
but in the end you are polished and they are finished. ''
யாம் பெற்ற இன்பம் பெருக வையகம்
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