एक दिन शकुनी का बेटा महामूर्ख वृकासुर दैत्य तप करने की इच्छा से घर से बाहर निकला। जब उसने राह में नारद मुनि को आते देखा तब दण्डवत करके पुछा," हे मुनिनाथ ! मुझे तप करने की इच्छा है सो आप दयालु होकर बतलाओ कि ब्रह्मा , विष्णु व महेश तीनों देवताओं में जो तुरन्त प्रसन्न होकर वरदान देते हों उनका तप करूं।"
यह बात सुनकर नारदजी बोले,"हे वृकासुर ! इन तीनों देवताओं में महादेव जी तुरन्त वरदान देते हैं और थोड़ा सा अपराध करने पर अपना क्रोध क्षमा नहीं करते। उन्होंने सहस्त्रार्जुन के तप करने से प्रसन्न होकर उसको हजार भुजा दी थी इसलिए तुम शिव जी का तप करो तो जल्दी फल मिलेगा। जब नारद मुनि यह बात कहकर चले गए तब वृकासुर उसी समय केदारेश्वर की ओर गया।
" शिवकी मूरति थापिकरि अग्निकुण्ड के तीर !
बैठयो आसनमार के होमन लग्यो शरीर !! "
जब सात दिन व सात रात में उसने अपने अंग का सब मांस छुरी से काटकर हवन कर दिया और आठवें दिन स्नान करके अपना शिर काटना चाहा तब भोलानाथ ने अग्निकुण्ड से निकलकर उसका हाथ पकड़ लिया और अपने कमण्डलु का जल उस पर छिड़क दिया। जब उसके प्रताप से वृकासुर का अंग दिव्य रूप होकर कुन्दन समान चमकने लगा तब शिवजी ने कहा," हे वृकासुर ! हम तेरी पूजा से प्रसन्न हुए। अब तुझे जो इच्छा हो वरदान मांग।"
यह वचन सुनते ही वृकासुर ने हाथ जोड़कर विनय करी," हे महाप्रभु ! मुझे वरदान दीजिए कि जिसके सिर पर मैं अपना हाथ रख दूं वह उसी समय जलकर राख हो जाए।
यह बात सुन कर शिव जी ने विचार किया कि यह अधर्मी दैत्य ऐसा वरदान मांगकर संसारी जीवों को दुःख देना चाहता है पर क्या करूं वचन दे चुका हूं। यह समझकर महादेव जी बोले," बहुत अच्छा ! हमने मुंह मांगा वरदान तुम्हें दिया।"
जब वह दैत्य यह वरदान पाकर प्रसन्न हुआ तब उस अधर्मी ने पार्वती जी का रूप देखकर विचार किया कि इससे दूसरी बात उत्तम नहीं जो मैं अपना हाथ भोलेनाथ के सिर पर धरकर उन्हें भस्म कर दूं और पार्वती जी को अपने घर ले जाऊं। जब वह पापी ऐसा विचार कर शिव जी के मस्तक पर हाथ रखने चला तब महादेव जी सब लोकों और दशों दिशाओं में भागते फिर रहे थे पर उस दैत्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।
जब ब्रह्मादिक कोई देवता शिव जी की रक्षा नहीं कर सके तब वे व्याकुल होकर वैकुण्ठनाथ की शरण में दौड़े चले गए और दण्डवत करके हाथ जोड़कर विनय करी," हे त्रिभुवनपति ! मैंने यह दुःख अपने ऊपर आप उठाया है। जिस उपाय से इस पापी दैत्य के हाथ से मेरे प्राण बचें वह उपाय कीजिए।"
शिव जी के मुख से ऐसे दीन वचन सुन कर नारायण जी भक्त हितकारी ने महादेव जी से कहा,"तुम धैर्य रखो। मैं इस संकट की घड़ी से तुम्हे निकालने का यत्न करता हूं।"
ऐसा कहकर वैकुण्ठ नाथ ने उसी समय ब्राह्मण रूप बना लिया और ऋषियों की तरह कमण्डल व मृगछाला लिए हुए वृकासुर के पास जाकर कहा,"हे वृकासुर ! तू इतना घबराया हुआ कहां भागा जाता है अपना समाचार हमसे तो बतलाओ।"
जब उस दैत्य ने वरदान पाने और अपनी इच्छा का हाल त्रिभुवनपति से कहा तब वैकुण्ठनाथ ऋषि रूप में बोले," तू बड़ा अज्ञानी है जो महादेवजी की बात पर विश्वास कर लिया। जो विष व धतुरा खाए, भूतों को साथ लिए मुण्डमाल व सर्पों का हार पहिने फिरा करते हैं,शास्त्रानुसार नहीं चलते, श्मशान पर बैठे हुए बौरोहों की तरह हंसते और नाचते हैं। उनको सच्चा मानकर इतना दुःख उठता है।
जब से दक्ष प्रजापति ने महादेव को श्राप दिया तब से सब बातें उनकी सच्ची नहीं होती इसलिए तुम अपने सिर पर हाथ रख कर पहिले उस वरदान की परीक्षा कर लो। जब तुम्हारे निकट उनका वचन सच ठहर जाए तब जो चाहना हो सो उनके साथ करना।"
यह सुनते ही वृकासुर ने परमेश्वर की माया से यह वचन सच्चा मानकर जैसे ही अपने सिर पर हाथ रखा वैसे ही जल कर राख का ढेर हो गया। यह दृश्य देखते ही भोले नाथ प्रसन्न होकर नाचने लगे। देवताओं ने आकाश से त्रिभुवन पति पर फूल बरसाए। उस समय आदि पुरुष भगवान ने महादेवजी से कहा कि," ऐसे अधर्मी दैत्य को इस तरह का वरदान देना उचित नहीं है। जगद्गुरु का अपराध करने से वह अपने दण्ड को प्राप्त हुआ।
यह बात सुनकर शिवजी ने विनय करी," हे महाप्रभु ! आप हमारी रक्षा करने वाले हो इसलिए हमसे अपराध भी हो जाता है।"
जब भोलेनाथ बहुत प्रकार से वैकुण्ठनाथ की स्तुति कर चुके तब त्रिभुवनपति ने उनको धैर्य देकर विदा किया।
जय भोले नाथ जय भोले बाबा हर हर महादेव हर हर महादेव
आप का पुत्र सनी कैथ
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