Wednesday, 2 July 2014

नालंदा विश्वविद्यालयन को क्यों जलाया गया था..? जानिए सच्चाई ...??


नालंदा विश्वविद्यालयन को क्यों जलाया गया था..?  जानिए सच्चाई ...??      एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क लूटेरा था....बख्तियार खिलजी.  इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।  उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित  कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.  एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने  उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली ...  मगर वह ठीक नहीं हो सका.  किसी ने उसको सलाह दी...  नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के  प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र  जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय  विधियों से इलाज कराया जाय  उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय  वैद्य ...  उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और  वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए  फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए  उनको बुलाना पड़ा  उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी...  मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा...  किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...  वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो.  बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई... बहुत  उपाय सोचा...  अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर  चले गए..  कहा...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से  इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!  उसने पढ़ा और ठीक हो गया ..  जी गया...  उसको बड़ी झुंझलाहट  हुई...उसको ख़ुशी नहीं हुई  उसको बहुत गुस्सा आया कि ... उसके  मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय  वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!  बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने  के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर ...  उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग  लगवा दिया ...पुस्तकालयों को ही जला के  राख कर दिया...!  वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग  लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके  जलती रहीं  उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार  डाले.  आज भी बेशरम सरकारें...उस नालायक  बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन  बनाये पड़ी हैं... !  उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को...  मैंने यह तो बताया ही नहीं... कुरान पढ़ के वह  कैसे ठीक हुआ था.  हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर  रख के नहीं पढ़ते...  थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते  मिएँ ठीक उलटा करते हैं..... कुरान के हर पेज  को थूक लगा लगा के पलटते हैं...!  बस...  वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ  पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप  लगा दिया था...  वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट  गया...ठीक हो गया और उसने इस एहसान  का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया  आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान  लेते है  यह प्राचीन भारत में उच्च्  शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और  विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के  इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के  साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के  छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में  पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व  और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में  एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम  द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध  विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन  वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक  पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण  के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग  तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस  विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत  जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध  चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में  यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक  विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत  किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र'  का जन्म यहीं पर हुआ था।  स्थापना व संरक्षण  इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय  गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७०  को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार  गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग  मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले  सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में  अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट  हर्षवर्द्धन और पाल  शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए  शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के  साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से  भी अनुदान मिला।  स्वरूप  यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय  विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें  विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं  अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस  विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न  क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान,  चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस  तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण  करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट  शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध  धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय  की नौवीं शती से बारहवीं शती तक  अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।  परिसर  अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र  में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य  कला का अद्भुत नमूना था।  इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से  घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य  द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर  मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक  भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध  भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं।  केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और  इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें  व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में  तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के  होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल  के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर  की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक  इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे।  प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था।  आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक  प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के  अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें  भी थी।  प्रबंधन  समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध  कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे  जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे।  कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के  परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम  समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य  देखती थी और द्वितीय समिति सारे  विश्वविद्यालय की आर्थिक  व्यवस्था तथा प्रशासन की देख--भाल  करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले  दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय  की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से  सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े  तथा आवास का प्रबंध होता था।  आचार्य  इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के  आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम,  द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे।  नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र,  धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और  स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग  के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख  शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक  और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से  ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ  एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस  विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे  जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है  वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र।  ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ  आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र  ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ  का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।  प्रवेश के नियम  प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और  उसके कारण  प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते  थे। उन्हें तीन कठिन  परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था।  यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध  आचरण और संघ के नियमों का पालन  करना अत्यंत आवश्यक था।  अध्ययन-अध्यापन पद्धति  इस विश्वविद्यालय में आचार्य  छात्रों को मौखिक व्याख्यान  द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त  पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी।  शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर  में अध्ययन तथा शंका समाधान  चलता रहता था।  अध्ययन क्षेत्र  यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन,  वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं  का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत  और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण,  दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र  तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के  अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक  काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ  विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु  की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान  का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र  अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।  पुस्तकालय  नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और  आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक  विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से  अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस  पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें  थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर'  नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था।  'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य  हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से  अनेक  पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने  साथ ले गये थे।

नालंदा विश्वविद्यालयन को क्यों जलाया गया था..?
जानिए सच्चाई ...??


एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क लूटेरा था....बख्तियार खिलजी.
इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।
उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित
कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.
एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने
उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली ...
मगर वह ठीक नहीं हो सका.
किसी ने उसको सलाह दी...
नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के
प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र
जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय
विधियों से इलाज कराया जाय
उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय
वैद्य ...
उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और
वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए
फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए
उनको बुलाना पड़ा
उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी...
मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा...
किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...
वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो.
बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई... बहुत
उपाय सोचा...
अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर
चले गए..
कहा...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से
इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!
उसने पढ़ा और ठीक हो गया ..
जी गया...
उसको बड़ी झुंझलाहट
हुई...उसको ख़ुशी नहीं हुई
उसको बहुत गुस्सा आया कि ... उसके
मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय
वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!
बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने
के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर ...
उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग
लगवा दिया ...पुस्तकालयों को ही जला के
राख कर दिया...!
वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग
लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके
जलती रहीं
उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार
डाले.
आज भी बेशरम सरकारें...उस नालायक
बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन
बनाये पड़ी हैं... !
उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को...
मैंने यह तो बताया ही नहीं... कुरान पढ़ के वह
कैसे ठीक हुआ था.
हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर
रख के नहीं पढ़ते...
थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते
मिएँ ठीक उलटा करते हैं..... कुरान के हर पेज
को थूक लगा लगा के पलटते हैं...!
बस...
वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ
पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप
लगा दिया था...
वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट
गया...ठीक हो गया और उसने इस एहसान
का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया
आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान
लेते है
यह प्राचीन भारत में उच्च्
शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और
विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के
इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के
साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के
छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में
पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व
और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में
एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम
द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध
विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन
वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक
पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण
के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग
तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस
विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत
जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में
यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक
विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत
किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र'
का जन्म यहीं पर हुआ था।
स्थापना व संरक्षण
इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय
गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७०
को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार
गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग
मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले
सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में
अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट
हर्षवर्द्धन और पाल
शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए
शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के
साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से
भी अनुदान मिला।
स्वरूप
यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय
विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें
विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं
अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस
विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न
क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान,
चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस
तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण
करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट
शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध
धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय
की नौवीं शती से बारहवीं शती तक
अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।
परिसर
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र
में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य
कला का अद्भुत नमूना था।
इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से
घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य
द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर
मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक
भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध
भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं।
केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और
इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें
व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में
तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के
होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल
के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर
की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक
इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे।
प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था।
आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक
प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के
अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें
भी थी।
प्रबंधन
समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध
कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे
जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे।
कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के
परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम
समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य
देखती थी और द्वितीय समिति सारे
विश्वविद्यालय की आर्थिक
व्यवस्था तथा प्रशासन की देख--भाल
करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले
दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय
की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से
सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े
तथा आवास का प्रबंध होता था।
आचार्य
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के
आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम,
द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे।
नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र,
धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और
स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग
के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख
शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक
और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से
ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ
एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस
विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे
जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है
वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र।
ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ
आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र
३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ
का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
प्रवेश के नियम
प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और
उसके कारण
प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते
थे। उन्हें तीन कठिन
परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था।
यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध
आचरण और संघ के नियमों का पालन
करना अत्यंत आवश्यक था।
अध्ययन-अध्यापन पद्धति
इस विश्वविद्यालय में आचार्य
छात्रों को मौखिक व्याख्यान
द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त
पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी।
शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर
में अध्ययन तथा शंका समाधान
चलता रहता था।
अध्ययन क्षेत्र
यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन,
वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं
का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत
और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण,
दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र
तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के
अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक
काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ
विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु
की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान
का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र
अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।
पुस्तकालय
नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और
आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक
विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से
अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस
पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें
थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर'
नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था।
'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य
हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से
अनेक
पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने
साथ ले गये थे।


 परोपकाराय फलन्ति वृक्षा: परोपकाराय वहन्ति नद्यः।
 परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकाराय इदं शरीरम्।।
            
 
 
                                          ( hari krishnamurthy K. HARIHARAN)"
'' When people hurt you Over and Over
think of them as Sand paper.
They Scratch & hurt you,
but in the end you are polished and they are finished. ''
யாம் பெற்ற இன்பம் பெருக  வையகம் 
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