ट्रेन में अभी भी दो घंटा विलम्व था और मैं पिछले एक घंटे से प्लेटफार्म पर पड़ा था| बहुत उबासी आ रही थी..इसलिए चाय पीने का मन हो आया. प्लेटफार्म से बाहर बहुत सारे दुकानें अभी भी खुली थी मगर अपने सामान को इस तरह छोड़कर मैं नहीं जा सकता.
मुझसे कुछ दूरी पर गंदे-फटे कपड़ों में भिखारियों के बच्चे खेल रहे थे, कौतूहलवश मैं उन्हे देखने लगा. चार से दस साल उम्र के पाँच बच्चे थे.. ये कहना मुश्किल था कि सभी एक ही परिवार से हैं. पानी की खाली बोतल, कुछ सूखे
ब्रेड के टुकड़े, प्लास्टिक के बैग में मुड़े हुए कुछ और खाने के समान...एक कोने में जमा कर रखा था उन्होने. बहुत मसगुल होकर आपस में बाते कर रहे थे और बीच-बीच में खाली बोतलों को एक दूसरे पर फेंकते हुए पूरे प्लेटफार्म पर भाग रहे थे. कथित संभ्रात लोग इन बच्चों को झिड़क भी रहे थे और ये बच्चे ज़ोर से हंसते हुए उनके सम्मान को ढेस पहुँचा रहे थे.
इनसे कोई बात नहीं करता-ये सिर्फ़ आपस में बात करते हैं. लोगों के बीच जाकर ये बहुत दयनीय रूप दिखाकर पैसे माँगते-खाना माँगते हैं और ये बच्चे ट्यूब लाइट की झक-झक रोशनी में ज़ोर-ज़ोर से हंसते हैं अपनी पीले दांतों को बाहर निकालकर.
मैंने उनमे से एक बच्चे को अपने पास बुलाया, मेरे आशा के विपरीत भागकर आया, "हाँ मालिक!" मैं खुश हुआ रात के मादकता में तहज़ीब नहीं भुला. 10 का सिक्का थमाकर बोला,"चाय ले आओगे?" हामी में सिर हिलाया था उसने. करीब आधे घंटे बाद एक कुल्हर में आधा कुल्हर चाय लेकर आया. मैं आश्वस्त था उसके नहीं आने का मगर उसे देखते ही हैरान रह गया. "बाबूजी, आपके पैसे कहीं अंधेरे में गिर गये, काफ़ी ढूँढा पर मिला नहीं. चाय वाले का बर्तन धोकर फिर चाय लाया हूँ"
मैं सन्न था, दूसरा सिक्का बढ़ाया मगर लेने से इंकार करता रहा, जबरन उसकी पॉकेट में डाला. खुद्दारी, ईमानदारी और मानवीयता तीनो मौजूद था उस बिन तराशे हीरे में.... चाय ख़त्म हो चुकी थी और गाड़ी भी प्लेटफार्म पर आ चुकी थी सिर्फ़ उस दिन घर आने की जल्दबाज़ी नहीं थी मुझे. डब्बे के अंदर सीखचों के बीच से उस बच्चे को घूर रहा था...काश इनके के साथ बेअदबी करने वाले लोग एक प्याली चाय का भरोसा इनपर कर लें....
मुझसे कुछ दूरी पर गंदे-फटे कपड़ों में भिखारियों के बच्चे खेल रहे थे, कौतूहलवश मैं उन्हे देखने लगा. चार से दस साल उम्र के पाँच बच्चे थे.. ये कहना मुश्किल था कि सभी एक ही परिवार से हैं. पानी की खाली बोतल, कुछ सूखे
ब्रेड के टुकड़े, प्लास्टिक के बैग में मुड़े हुए कुछ और खाने के समान...एक कोने में जमा कर रखा था उन्होने. बहुत मसगुल होकर आपस में बाते कर रहे थे और बीच-बीच में खाली बोतलों को एक दूसरे पर फेंकते हुए पूरे प्लेटफार्म पर भाग रहे थे. कथित संभ्रात लोग इन बच्चों को झिड़क भी रहे थे और ये बच्चे ज़ोर से हंसते हुए उनके सम्मान को ढेस पहुँचा रहे थे.
इनसे कोई बात नहीं करता-ये सिर्फ़ आपस में बात करते हैं. लोगों के बीच जाकर ये बहुत दयनीय रूप दिखाकर पैसे माँगते-खाना माँगते हैं और ये बच्चे ट्यूब लाइट की झक-झक रोशनी में ज़ोर-ज़ोर से हंसते हैं अपनी पीले दांतों को बाहर निकालकर.
मैंने उनमे से एक बच्चे को अपने पास बुलाया, मेरे आशा के विपरीत भागकर आया, "हाँ मालिक!" मैं खुश हुआ रात के मादकता में तहज़ीब नहीं भुला. 10 का सिक्का थमाकर बोला,"चाय ले आओगे?" हामी में सिर हिलाया था उसने. करीब आधे घंटे बाद एक कुल्हर में आधा कुल्हर चाय लेकर आया. मैं आश्वस्त था उसके नहीं आने का मगर उसे देखते ही हैरान रह गया. "बाबूजी, आपके पैसे कहीं अंधेरे में गिर गये, काफ़ी ढूँढा पर मिला नहीं. चाय वाले का बर्तन धोकर फिर चाय लाया हूँ"
मैं सन्न था, दूसरा सिक्का बढ़ाया मगर लेने से इंकार करता रहा, जबरन उसकी पॉकेट में डाला. खुद्दारी, ईमानदारी और मानवीयता तीनो मौजूद था उस बिन तराशे हीरे में.... चाय ख़त्म हो चुकी थी और गाड़ी भी प्लेटफार्म पर आ चुकी थी सिर्फ़ उस दिन घर आने की जल्दबाज़ी नहीं थी मुझे. डब्बे के अंदर सीखचों के बीच से उस बच्चे को घूर रहा था...काश इनके के साथ बेअदबी करने वाले लोग एक प्याली चाय का भरोसा इनपर कर लें....
( hari krishnamurthy K. HARIHARAN)"
'' When people hurt you Over and Over
think of them as Sand paper.
They Scratch & hurt you,
but in the end you are polished and they are finished. ''
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