सिखों के सबसे पवित्र धर्मस्थल स्वर्ण मंदिर को खालिस्तानी चरमपंथियों से मुक्त कराने की सैन्य कार्रवाई में सैकड़ों की जानें गयी और स्वर्ण मंदिर तोप के गोलों और मषीनगनों की गोलियों से बहे खून से नहा उठा था। इसका भयंकार परिणाम यह हुआ कि 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपने ही सिख अंगरक्षकों की गोलियों का षिकार होना पड़ा। प्रतिक्रियास्वरुप देश में दंगा भड़क उठा और सिख समुदाय का कत्लेआम शुरू हो गया। देशभर में भड़के सिख विरोधी दंगों में हजारों निर्दोश सिखों की जानें गयीं। एक अनुमान के मुताबिक, पूरे देश में करीब 10 हजार से अधिक सिखों का नरसंहार हुआ। अकेले दिल्ली में ही 4 हजार से अधिक सिख मारे गए। दिल्ली के उच्च मध्यमवर्गीय रिहायशी इलाकों मसलन लाजपत नगर, जंगापुरा, फ्रेंड्स कॉलोनी, सफदरजंग एनक्लेव, डिफेंस कॉलोनी को योजनाबद्ध तरीके से निशाना बनाया गया। उनके गुरुद्वारों, दुकानों एवं घरों को लूटकर आग के हवाले कर दिया गया। भीड़ ने वृद्ध, बच्चे और महिलाओं तक को नहीं बख्शा। दिल्ली की तरह देश के अन्य राज्यों मसलन उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में भी सिखों पर जुल्म ढाया गया। त्रासदी यह कि जिन राज्यों में हिंसा भड़की वहां ज्यादातर में कांग्रेस की ही सरकारें थीं। खुद सरकार ने स्वीकार किया है कि सिख विरोधी दंगों में अकेले दिल्ली में ही 2733 लोग मारे गए। हजारों लोग घायल हुए। करोड़ों की संपत्तियां लूटी गयीं। हालांकि तत्कालीन केंद्र की कांग्रेस सरकार दृढ़ता दिखायी होती तो यह नरसंहार नहीं होता। लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरी बैठी रही। इसका खुलासा सीबीआइ भी कर चुकी है। उसका कहना है किये सभी हिंसक कृत्य दिल्ली पुलिस के अधिकारियों और इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी की नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की सहमति से आयोजित किए गए थे। गौरतलब है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद की षपथ ली और जब उनसे दंगों के बारे में पूछ गया तो उन्होंने कहा कि 'जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।' स्वाभाविक रूप से उनके इस जवाब के बाद पुलिस सख्त कार्रवाई करने से हिचकी होगी और अराजकवादियों का हौसला बुलंद हुआ होगा। अगर पुलिस अराजकवादियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की होती तो हजारों सिखों की जान बच सकती थी। जहां तक पंजाब के आतंकवाद का सवाल है तो इसके लिए भी तत्कालीन कांग्रेस सरकार ही जिम्मेदार रही है। उसने ही राजनीतिक फायदे के लिए अलगाववादी समूहों को बढ़ावा दिया और बाद में उसे आतंकी संगठन घोशित किया। सच तो यह है कि केंद्र सरकार की नाकामी के कारण ही पवित्र स्वर्ण मंदिर पर हथियारबंद अलगाववादियों ने कब्जा किया और उसकी कीमत समस्त सिख समुदाय को चुकानी पड़ी। इंदिरा गांधी के हत्यारे अंगरक्षकों बेअंत, सतवंत और केहर सिंह को फांसी पर झुला उनके किए की सजा दे दी गयी लेकिन सवाल यह है कि हजारों सिखों के नरसंहार के गुनाहगार 30 साल बाद भी कानून की पकड़ से बाहर क्यों हैं? सिख विरोधी दंगों के सिलसिले में केवल 3163 लोगों की गिरफ्तारी हुई और इनमें से केवल 442 लोगों को अपराध का दोशी करार दिया गया। इनमें 49 को उम्रकैद की सजा सुनायी गयी है और तीन को दस साल की कैद की सजा मिली है। लेकिन अभी भी षातिर गुनाहगार कानून के फंदे से बाहर हैं और विडंबन यह कि कांग्रेस उन्हें हरसंभव बचाने की कोषिष कर रही है। यहां उल्लेखनीय तथ्य यह भी कि अमेरिका की एक संघीय अदालत ने 1984 के सिख विरोधी दंगों में कथित तौर पर षामिल पार्टी नेताओं को बचाव करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ भी समन जारी कर चुकी है।
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( hari krishnamurthy K. HARIHARAN)"
'' When people hurt you Over and Over
think of them as Sand paper.
They Scratch & hurt you,
but in the end you are polished and they are finished. ''
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