Sunday, 2 March 2014

हमारे अंदर परमात्मा छुपे हैं।



दो मित्र नदी के किनारे खेल रहे थे। एक ने कहा- यहां तो रेत ही रेत है। पानी क्यों नहीं है? दूसरे ने कहा- पानी हमेशा ऊपर नहीं रहता। दोनों मिलकर रेत की खुदाई करने लगे। कुछ ही देर में पानी नजर आने लगा।


सत् और असत् क्या है, यह एक सनातन जिज्ञासा है। इस बारे में जो विचार किया गया है, उसे सद्-असद् विवेक कहते हैं। लौकिक भाषा में सत् का अर्थ है अच्छा। सत् व्यक्ति अर्थात सज्जन। इसका आध्यात्मिक अर्थ है अपरिणामी, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। जो असत् है वह परिणामी है, यानी उसमें अवस्था बदलती है। सत् वस्तु एक ही है, बाकी जितनी वस्तुएं हैं सब असत् हैं। असत् वस्तु का अर्थ खराब नहीं, परिवर्तनशील है।

किसी भी वस्तु में जब देश, काल अथवा पात्र भेद आ जाता है तब वह परिवर्तित हो जाती है। वह अपने पहले वाले रूप में नहीं रहती। जबकि यह जो वास्तव जगत है, यहां सब कुछ 'कॉजल' अर्थात कारणयुक्त है। इस जगत में हम जो कुछ देखते हैं उसका कारण मौजूद है। कैसे बना, उसका कारण है। खोजने से कारण जरूर मिल जाएंगे। परिणाम देखने के बाद मनुष्य जब कारण की तरफ बढ़ते हैं तब चलते-चलते मूल कारण तक पहुंच जाते हैं। यह खोज करते-करते जब मूल कारण में पहुंचते हैं, उसके बाद और कोई कारण नहीं पाते। वही है सुप्रीम कॉज, अर्थात वही है परमात्मा। इसी को ज्ञान विचार कहते हैं।
हम लोग दुनिया में बहुत कुछ पाते हैं जो ऐसा ही है। जैसे दही में घी है। मगर घी पाने के लिए दही को मथना अवश्य होगा। मंथन करना पड़ेगा। तब एक तरफ मक्खन अलग हो जाएगा। गमीर् के समय नदी में पानी नजर नहीं आता, केवल बालू नजर आती है। लेकिन ऐसा नहीं होता। केवल बालू नहीं है, बालू को हाथ से हटा कर देखो। नीचे पानी नजर आएगा। वहां अंतनिर्हित जलधारा है। लकड़ी में आग नहीं दिखाई देती। मगर दो लकड़ी टकरा कर देखोगे आग नजर आ जाएगी।

ठीक वैसे ही हमारे अंदर परमात्मा छुपे हैं। अपने मन वाले तिल को पीस कर खली अलग कर दो तो तेल मिल जाएगा। तुम्हारे मन वाले दही का मंथन करो तो मट्ठा और मक्खन अलग हो जाएगा। मन वाली दरिया का बालू हटा दो तो पानी निकल आएगा। तुम्हारे मन में जो अपवित्रताएं हैं, जो पाप हैं, जो गुनाह हैं, जो संकीर्णताएं है, जो खुदपरस्ती हैं, उन्हें हटा दो। परमपिता खुश हो जाएंगे। यह जो भक्तिमूलक साधना है जिसमें है 'मैं' और 'मेरा ईश्वर'। और मुझे चलना है परमपिता की ओर।

यह जो उपासना है, यही सही उपाय है और उसी को लेकर जो आगे चलते हैं वे परमपिता को अवश्य पाएंगे। यह काम कौन कर सकता है? जो बहादुर है, जो वीर है, जो संग्रामी है। यह बहादुरी का, वीरता का, संग्रामी का काम कौन कर सकता है? जो भक्त है वही कर सकता है। जो भक्त है वही हिम्मती हैं, वही बहादुर हैं।

हिम्मत के साथ भक्ति का बहुत निकट संपर्क है। जो पापी है वही डरपोक है। तुम लोग साधक हो। तुम लोग भक्त बनो। अपनी भक्तिकी बदौलत मन के मैल को हटा दो। परमपिता तुम्हारे हैं। तुम उनके बेटा हो, तुम उनकी बेटी हो, उनके पास पहुंचना तुम्हारा फर्ज है। थोड़ी चेष्टा करने से आसानी से पहुंच जाओगे। तुम्हारे लिए कोई बड़ी बात नहीं है। अपने पिता के पास पहुंचना तो स्वाभाविक है। अपने आप को कभी छोटा मत समझो, नीच मत समझो। और कोई नीच समझे मगर यह याद रखोगे कि परमपुरुष के पास तुम छोटे नहीं हो, नीच नहीं हो। तुम उनके बेटा-बेटी हो तो अपने आदर्श को सामने रखो। हिम्मत के साथ आगे बढ़ो, जय अवश्य ही होगी। लेकिन इस यात्रा में सिर्फ अपने बारे में न सोचो। उनके बारे में भी सोचो, जो पीछे छूट गए हैं। हो सके, तो उनकी मदद भी करो।

                                          ( hari krishnamurthy K. HARIHARAN)"
'' When people hurt you Over and Over
think of them as Sand paper.
They Scratch & hurt you,
but in the end you are polished and they are finished. ''
யாம் பெற்ற இன்பம் பெருக  வையகம் 
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